यह उन लोकप्रिय अखबारों जैसा ही है जो बलात्कार की खबरों को पूरी डीटेल्स के साथ रस लेते हुए छापते हैं, लेकिन कहानी के प्लॉट में सेक्स आ जाने से कहानी उनके लिए अपारिवारिक हो जाती है (मां-बहन के पढ़ने लायक नहीं), बिना यह देखे कि कहानी की नीयत क्या है.
2.
इस विकृत एवं अपारिवारिक सेक्स-जीवन से क्या मानव के मन पर दबाव कम हो पाते हैं? उससे क्या व्यइत वास्तविक मनोरंजन एवं तृप्ति पाता है? क्या आर्थिक दबाव केनीचे कुछ मनोवैज्ञानिक कारण भी नहीं रहते, जो मानव को इन आकर्षणों की तरफ खींचतेहैं? ऐसे उपभोगों का मानव-चेतना पर क्या प्रभाव पड़ता है? लैंगिक सन्बन्ध अपने को बांटने और इस प्रकार मरने की आव-~ श्यकता में से पैदा होताहै.