आधार पर जी सकती है उसका स्वतंत्र कोई अस्तित्व ही नहीं बिन ब्याहा पुरूष
2.
बिन ब्याहा पुरुष चैन से खाता है, विहार करता है और मूँछों पर ताव देता है।
3.
उस जनम का कोई साधु-महात्मा है, नहीं तो लड़ाई-झगड़े के डर से कौन बिन ब्याहा रहता है।
4.
ह्रदय एक वैराग्य बसाये, तन पर धूनी भस्म रमाये, मन मस्तिष्क कुंवारा करके, आत्मा को बिन ब्याहा रख के, मैंने कल एक सन्यासी को, जोगिया रंग कि चादर डाले, नित्य लगन अनिमेष नयन से, किसी एक अनजान नज़र की, राहों को तकते देखा है, मैंने कल मिटते देखा है |