इसे पराजितों का सिद्धांतवाद कहें लेकिन इसमें बड़ा दम है।
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वह चीजें जिनको हम आशीर्वाद कहते हैं, सिद्धांतवाद कहते हैं।
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“सिर्फ़ सिद्धांतवाद से काम नहीं चलता, धंधा-पानी और कमाई ज्यादा महत्वपूर्ण है”।
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माक्र्सवादी पार्टी के नेता अब भी सिद्धांतवाद के कुएं में गोते लगा रहे हैं।
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सिर्फ़ सिद्धांतवाद से काम नहीं चलता, धंधा-पानी और कमाई ज्यादा महत्वपूर्ण है ” ।
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स् वामी दयानंद के सिद्धांतवाद में परमेश् वर के बाद वेदो का महत् वपूर्ण स् थान है।
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निश्चित तौर पर भारतीय राजनीति में ऐसे लोगों का जिंदा रहना जरूरी है जो समय-समय पर आदर्शवाद और सिद्धांतवाद की बात करे।
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आज सिद्धांतवाद के दिन लदते जा रहे हैं इसलिए चाहे पूंजीवाद हो या समाजवाद, दोनों वर्तमान अस्तित्व को स्वीकार करने पर विवश हैं।
9.
ये लिबरल नेता बहुत बुद्धिमान, देशभक्त और प्रामाणिक व्यक्ति थे किंतु पता नहीं क्यों ब्रिटिश शासकों की न्यायप्रियता और लोकतांत्रिक सिद्धांतवाद पर उन्हें जरूरत से ज्यादा विश्वास था।
10.
क्या सिद्धांतवाद को तिलांजलि देकर सत्ता प्राप्ति करना उचित होगा? यहां से जनसंघ के सामने सिद्धांतवाद और सत्ता के बीच समन्वय बैठाने की समस्या पैदा हो गयी।