जब महाविषुव की खिसकन इतनी हो जाती है तो स्पष्टत : महाविषुव के दिन का नक्षत्र भी बदल जाता है।
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जब महाविषुव की खिसकन इतनी हो जाती है तो स्पष्टत : महाविषुव के दिन का नक्षत्र भी बदल जाता है।
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जब महाविषुव की खिसकन इतनी हो जाती है तो स्पष्टत : महाविषुव के दिन का नक्षत्र भी बदल जाता है।
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आगे अश्वनी आदि से होते हुये महाविषुव आज रेवती नक्षत्र में आ पहुँचा है लेकिन प्राचीन स्मृति आधारित पर्व पूर्ववत जारी हैं।
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कालान्तर में वर्ष यानि संवत्सर का प्रारम्भ महाविषुव के बजाय शीत अयनांत से होने लगा - अगहनी धान यानि वृहि की बलि से नवसत्र का आरम्भ।
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पृथ्वी की अयन गति के कारण ( आवृत्ति लगभग 26000 वर्ष ) कृष्ण के समय महाविषुव का दिन पीछे खिसक कर रोहिणी नक्षत्र के पास पहुँच चुका था।
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चन्द्र हरि या आचार्य शरण जाने किसका स्वर है - दीर्घतमा जब सरस्वती तट पर गा रहे थे उस युग में महाविषुव कृत्तिका नक्षत्र की सीध में था।
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इस प्रकार वह विषुव के पीछे हटते जाने और महाविषुव के नक्षत्र विशेष की सीध में पड़ने के आधार पर वह काल गणना करते हैं एवं उन्हें तत्कालीन सत्र आयोजनों से जोड़ते हैं।
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वर्ष का प्रारम्भ महाविषुव ( सौर गति की दृष्टि और काल / स्थान परिवर्तन के हिसाब से वर्तमान के दिनांक 20 / 21 / 22 मार्च ) से प्राचीन संस्कृतियाँ मानती आईं जब कि दिन और रात बराबर होते और सूर्य ठीक पूरब में उदित होता।
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ऐसे में काल के पहरुवों ने नवव्यवस्थित संहिताओं के संरक्षण और पोषण की ओर ध्यान दिया , कालसंशोधन पीछे रह गया और यह स्थिति ईसा से 1900 वर्षों पहले तक कमोबेश जारी रही जब महाविषुव रोहिणी के पास से खिसक कृत्तिका नक्षत्र तक पहुँच गया और कृत्तिका युग का प्रारम्भ हुआ।