| 21. | कार्य की सिद्धि और असिद्धि में समानभाव से रहकर कर्मयोग का आश्रय ले क्षात्रधर्म का पालन करो।
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| 22. | कार्य की सिद्धि और असिद्धि में समानभाव से रहकर कर्मयोग का आश्रय ले क्षात्रधर्म का पालन करो।”
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| 23. | कार्य की सिद्धि और असिद्धि में समानभाव से रहकर कर्मयोग का आश्रय ले क्षात्रधर्म का पालन करो।”
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| 24. | इन चारों खतरों से बचने का निचोड़ इसी सिद्धि , असिद्धि की समता में ही आ जाता है।
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| 25. | इन चारों खतरों से बचने का निचोड़ इसी सिद्धि , असिद्धि की समता में ही आ जाता है।
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| 26. | गीता कहती है कि सिद्धि , असिद्धि में सम रहकर, समान भाव से रहकर आसक्तिको त्यागकर कर्म करना चाहिए-योगस्थ: कुरु कर्माणिसंगंत्यक्त्वाधनञ्जय।
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| 27. | गीता कहती है कि सिद्धि , असिद्धि में सम रहकर, समान भाव से रहकर आसक्तिको त्यागकर कर्म करना चाहिए-योगस्थ: कुरु कर्माणिसंगंत्यक्त्वाधनञ्जय।
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| 28. | ४ . २२वें श्लोक में समझाया गया है कि सिद्धि और असिद्धि में समता रखने से वह व्यक्ति कर्मों के फ़लों से नहीं बँधता।
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| 29. | ४ . २२ वें श्लोक में समझाया गया है कि सिद्धि और असिद्धि में समता रखने से वह व्यक्ति कर्मों के फ़लों से नहीं बँधता।
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| 30. | और ४ . २२ वें श्लोक में समझाया गया है कि सिद्धि और असिद्धि में समता रखने से वह व्यक्ति कर्मों के फ़लों से नहीं बँधता।
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