इस संदर्भ में डॉ . शिवकुमार मिश्र का मत ध्यान देने योग्य है '' जिस काव्य-शास्त्र अथवा साहित्य-शास्त्र द्वारा निर्धारित प्रतिमानों से रस लेकर सदियों-सहस्राब्दियों से भारतीय रचनाशीलता विकसित और पल्लवित होती रही है , महान रचनाकारों की विश्व-विख्यात रचनाएं जिसकी कीर्तिपताका फहरा रही हैं , वह काव्य-शास्त्र या साहित्यशास्त्र भी अंतत : उसे कुलीन मानसिकता की देन है , जो हमारे सामाजिक विधान की भी सृष्टा है।