| 31. | यानि ख़ जो जिह्वामूलीय कहलाता था ) -यह तब प्रयोग होता है जब श्वास विसर्ग अः क्रमशः अघोष ओष्ठ्य और
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| 32. | संस्कृत हिन्दी पदादि ' स-ध्वनि' पूर्वी राजस्थानी में तो सुरक्षित है, किंतु मेवाड़ी-मालवी-मारवाड़ी में अघोष 'ह्ठ' हो जाती है।
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| 33. | पूर्वी पंजाबी में सघोष महाप्राण ध्वनियाँ ( घ, झ, ढ, ध, भ) अघोष आरोही सुर के साथ बोली जाती हैं।
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| 34. | पूर्वी पंजाबी में सघोष महाप्राण ध्वनियाँ ( घ, झ, ढ, ध, भ) अघोष आरोही सुर के साथ बोली जाती हैं।
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| 35. | ( 4) संस्कृत हिंदी पदादि “स-ध्वनि” पूर्वी राजस्थानी में तो सुरक्षित है, किंतु मेवाड़ी-मालवी-मारवाड़ी में अघोष “ह्ठ” हो जाती है।
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| 36. | जहां उच्चारण में दृढ़ता के कारण प्रतिध्वनि क्षमता कम हो , वह अघोष तथा इसका विपरीत भाव घोष कहलाता है।
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| 37. | अन्यथा वे अघोष होती हैं ( जैसा कि “ clothe ” में ) : þunor , suð , soþfæst .
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| 38. | जहां उच्चारण में दृढ़ता के कारण प्रतिध्वनि क्षमता कम हो , वह अघोष तथा इसका विपरीत भाव घोष कहलाता है।
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| 39. | ख़ को भाषाविज्ञान के नज़रिए से अघोष कण्ठ्य संघर्षी वर्ण कहा जाता है ( अंग्रेजी में इसे वाएस्लेस वेलर फ़्रिकेटिव कहते हैं)।
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| 40. | आदि में क् च् त् इन अघोष वर्णों के स्थान में क्रमश : संघोष ग् ज् द् का आदेश होना प्रारंभ हुआ।
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