तत्त्वचिन्तामणि की असिद्धि भाग की दीक्षिति के अन्त में अघुनाथ शिरोमणि ने भी कहा है कि चकार से अन्य निग्रहस्थान भी अभिप्रेत [ 89 ] है।
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तू आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्यकर्मों को कर , समत्वभाव ही योग कहलाता है | (48)
33.
इस प्रकार यह सुस्पष्ट है कि अनेक प्रश्नों के उत्तर विज्ञान के पास नहीं है और इसी प्रकार ईश्वर की सिद्धि- असिद्धि में भी वह नितान्त असमर्थ है ।।
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२ . ४८वें श्लोक में इसके विस्तार में सिद्धि और असिद्धि भी आ जाती है और तब वह योग की बराबरी कर लेता है - ' समत्व योग ' ।
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निश्चित ही ऊपर जो व्याख्या दी गई है , वह एक ऐसे कर्मयोगी की दी गई है , जो सिद्धि- असिद्धि में समभाव रख सतत परहितार्थाय कर्म करता रहता है।
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देखा , वह रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय, आसन छोड़ना असिद्धि, भर गये नयनद्वय, “धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध, धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध जानकी!
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देखा , वहाँ रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय, आसन छोड़ना असिद्धि, भर गये नयनद्वय, “धिक् जीवन को जो पाता ही आया है विरोध, धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध जानकी!
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देखा , वहाँ रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय, आसन छोड़ना असिद्धि, भर गये नयनद्वय, “धिक् जीवन को जो पाता ही आया है विरोध, धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध जानकी!
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जिन साधकों को सपने दिखाई देते हैं वे उनके लिए ईष्ट देव द्वारा दिए गए संकेत हैं जो साधना की सिद्धि ( सफलता ) व असिद्धि ( असफलता ) को बताते हैं .
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देखा , वहाँ रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय, आसन छोड़ना असिद्धि, भर गये नयनद्वय, 'धिक् जीवन को जो पाता ही आया है विरोध, धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध जानकी!