पूर्वी समूह पार्श्वनाथ मंदिर - पूर्वी समूह का यह विशालतम जैन मंदिर है जिसकी उत्तरी दीवार पर बाहर की ओर का अलंकरण कार्य बहुत दर्शनीय है वहां विविध विषय और दैनंदिनी कार्य चारुता के साथ उत्कीर्ण किये गये हैं ।
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गीता में कृष्ण कहते हैं - “ जो कुछ भी गौरव , चारुता और सौन्दर्य से युक्त है , उसे मेरे ही तेज के अंश से उत्पन्न समझो।” उस स्त्री के सौन्दर्य में मैं तो ईश्वर का ही अंश देखता हूं।
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गीता में कृष्ण कहते हैं - “ जो कुछ भी गौरव , चारुता और सौन्दर्य से युक्त है , उसे मेरे ही तेज के अंश से उत्पन्न समझो।” उस स्त्री के सौन्दर्य में मैं तो ईश्वर का ही अंश देखता हूं।
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युग के प्रति सजगता , ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में वर्तमान का विश्लेषण, स्वच्छंदतावादी कलात्मक दृष्टिकोण, भावानुभूति, प्रकृति के प्रति अनुराग, भाषा की चारुता, शब्द -विन्यास की कोमलता, चितंन की तार्किकता और इन सबके ऊपर मानव चरित्र की सूक्ष्मातिसूक्ष्म परख इनकी शक्ति रही है।
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जब किसी शब्द के पर्यायवाची का प्रयोग करने से पंक्ति में ध्वनि का वही चारुत्व न रहे तब मूल शब्द के प्रयोग में शब्दालंकार होता है और जब शब्द के पर्यायवाची के प्रयोग से भी अर्थ की चारुता में अंतर न आता हो तब अर्थालंकार होता है।
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जब किसी शब्द के पर्यायवाची का प्रयोग करने से पंक्ति में ध्वनि का वही चारुत्व न रहे तब मूल शब्द के प्रयोग में शब्दालंकार होता है और जब शब्द के पर्यायवाची के प्रयोग से भी अर्थ की चारुता में अंतर न आता हो तब अर्थालंकार होता है।
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जब किसी शब्द के पर्यायवाची का प्रयोग करने से पंक्ति में ध्वनि का वही चारुत्व न रहे तब मूल शब्द के प्रयोग में शब्दालंकार होता है और जब शब्द के पर्यायवाची के प्रयोग से भी अर्थ की चारुता में अंतर न आता हो तब अर्थालंकार होता है।
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युग के प्रति सजगता , ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में वर्तमान का विश्लेषण , स्वच्छंदतावादी कलात्मक दृष्टिकोण , भावानुभूति , प्रकृति के प्रति अनुराग , भाषा की चारुता , शब्द -विन्यास की कोमलता , चितंन की तार्किकता और इन सबके ऊपर मानव चरित्र की सूक्ष्मातिसूक्ष्म परख इनकी शक्ति रही है।
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संस्कृत , प्राकृत , अपभ्रंश , डिंगल , अरबी तथा फारसी के भाषिक शिखरों के मध्य टकसाली-खडी हिंदी की कल-कल निनादिनी उतारों-चढावों , घुमावों-भटकावों के मध्य सतत प्रवाहित साहित्य को क्षिप्रता , निर्मलता , चारुता , सरलता , तथा सारगर्भितता के पञ्चतत्वों परिपुष्ट कर जनगन-मन का साध्य एवं आराध्य बनाया है .
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संस्कृत , प्राकृत , अपभ्रंश , डिंगल , अरबी तथा फारसी के भाषिक शिखरों के मध्य टकसाली-खडी हिंदी की कल-कल निनादिनी उतारों-चढावों , घुमावों-भटकावों के मध्य सतत प्रवाहित साहित्य को क्षिप्रता , निर्मलता , चारुता , सरलता , तथा सारगर्भितता के पञ्चतत्वों परिपुष्ट कर जनगन-मन का साध्य एवं आराध्य बनाया है .