पढ़े-लिखे समझदार कहे जाने वाले बहुसंख्यक लोगों को इसमें कोई रूचि नहीं है इस सबसे छेड़खानी करना उन्हें सिरफिरे लोगों की महत्वाकांक्षा लगती है और उन्हें दुःख है कि कविता में नृत्य में नाटक में अब जनता की रुचि नहीं रही चौबीसों घंटे रोजमर्रा के संघर्षों में पिसती रियाया का कोई सौंदर्यबोध ही नहीं है अलबत्ता इतना जरूर कहते हैं बुद्धिजीवी कि कलाएं अब हाशिये पर हैं पता नहीं क्यों उस इमारत में बैठे नुमाइंदों की तरफ धीरे-धीरे सरक रहे हैं वे