तृष्णा को आकाशरूपी मार्ग की उपमा दी जा सकती है , क्योंकि जैसे आकाश कभी सूर्यप्रकाश से निर्मल हो जाता है , कभी मेघाच्छन्न होने पर कुछ-कुछ अँधियारी छा जाती है और कभी कुहरे से आवृत्त हो जाता है , वैसे ही तृष्णा भी कभी तनिक विवेकरूपी प्रकाश से निर्मल हो जाती है , विवेक न होने पर अज्ञान से मलिन और कभी कुहरे के तुल्य व्यामोह से व्याप्त हो जाती है।।