इसी वास्तविकता का कु़रआन दूसरे शब्दों में इस प्रकार वर्णन करता है: ‘‘ मानवीय आत्मा को ख़ुदा ने भलाई और बुराई का ज्ञान अंतः प्रेरणा के रूप में प्रदान कर दिया है।
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यह काम पाठकों, समीक्षकों और आलाचकों का है कि वे उनकी लघुकथाओं का विश्लेषण कर बतावें कि किस दक्षता से वे आज के आदमी, समाज और परिवेश की त्रासदियों, विद्रूपताओं, विसंगतियों और विडम्बनाओं की मनोवैज्ञानिक सचाई की हममें अंतः प्रेरणा जाग्रत करती हैं।
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यह काम पाठकों, समीक्षकों और आलाचकों का है कि वे उनकी लघुकथाओं का विश्लेषण कर बतावें कि किस दक्षता से वे आज के आदमी, समाज और परिवेश की त्रासदियों, विद्रूपताओं, विसंगतियों और विडम्बनाओं की मनोवैज्ञानिक सचाई की हममें अंतः प्रेरणा जाग्रत करती हैं।
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स्वाधीनता के भैरववाद से उनमें जो अंतः प्रेरणा उदित हुई थी, वह अब भिन्न-भिन्न वादों के तर्कजाल में लुप्त हो गई है...... ' (वही, पृ ० १ ५) साहित्य के प्रति अपनी इसी विवादयुक्त, आदर्शवादी दृष्टि के कारण पदुमलाल बख्शी समालोचना को सत् साहित्य की समीक्षा के रूप में परिभाषित करते हैं।