और वह श्यामल सलोनी छांह कसमसाती सी कुएं के जगत वाली जिसकी ओढ़नी को शीश पर धर तप्त दोपहरी की उस तीखी लपट में भी वह तनिक सा मुस्कराया अब काली निशा में उर्वर बीज सपनों के जो अँकुआ उठेंगे कल उषा अनुरागिनी का स्पर्श पाकर शांत और चुपचाप बोना चाहता है ढल गयी है …………………………………..