इन अंगरागों और सुगंधों की रचना के लिए अनुभवी शास्त्रों तथा प्रयोगादि के लिए प्रसाधकों तथा प्रसाधिकाओं को विशेष रूप से शिक्षित और अभ्यस्त करना आवश्यक समझा जाता था।
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उनसे पूछा गया-क्या साधु को कड़कड़ाती धूप और अपनी चारो तरफ जल रही आग से कष्ट नहीं होता? इससे साधक विचलित नहीं होता? तो जानकार साधु ने जवाब दिया-इसके लिए पहले से ही अपने शरीर को अभ्यस्त करना पड़ता है।
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दुरितों के संशोधन में प्रखरता का उपयोग करना पड़ता है और नई विचारधारा में अपने गुण, कर्म, स्वभाव को इस प्रकार अभ्यस्त करना पड़ता है जैसे अनगढ़ पशु-पक्षियों को सरकस के करतब दिखाने के लिए जिस तिस प्रकार प्रशिक्षित किया जाता है।