सिमट रहा है आदमी हर रोज अपने में भूल जाता है भावनाओं की कद्र हर नयी सुविधा और तकनीक घर में सजाने के चक्कर में देखता है दुनिया को टी. वी. चैनल की निगाहों से महसूस करता है फूलों की खुशबू कागजी फूलों में पर नहीं देखता पास-पड़ोस का समाज कैद कर दिया है बेटे को भी चहरदीवारियों में भागने लगा है समाज से चैंक उठता है कॉलबेल की हर आवाज पर मानो खड़ी हो गयी हो कोई अवांछित वस्तु दरवाजे पर आकर।