लेकिन अकेलापन जब हद से गुज़रने लगा तो मैंने ये हरबा इस्तेमाल किया-आत्मविज्ञापन का ।
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अपने बारे में सूचना देने का जो जीतेन्द्र का अंदाज है वो अक्सर आत्मविज्ञापन सा लगता है.
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ये एक तन्हा आदमी का आत्मविज्ञापन है जिसे डर है कि उसके दोस्त उसे कहीं भूल ना जाएँ ।
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आत्मविज्ञापन, आत्मश्लाघा के इस दौर में जब हर वस्तु, हर विचार बाजारवाद का शिकार या पोषक हो रहा है।
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आदमी अपना आत्मविज्ञापन करने के लिए, बड़ा आदमी बनने के लिए न जाने कितना ढंग और ढोंग बनाता रहता है।
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अगर सवाल केवल अंतर्वस्तु का है तो जगदीश्वर जी अपने ब्लॉग पर यह क्या आत्मविज्ञापन ठेल रहे हैं-जगदीश् वर चतुर्वेदी।
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इस अनुमान की भाषा को इसलिये बोलना पड़ रहा क्योंकि उन दिनों के कवि प्राय: आत्मविज्ञापन के प्रति सचेत नहीं रहा करते थे।
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इस अनुमान की भाषा को इसलिये बोलना पड़ रहा क्योंकि उन दिनों के कवि प्राय: आत्मविज्ञापन के प्रति सचेत नहीं रहा करते थे।
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आत्मविज्ञापन के माध्यम से सर्वश्रेष्ठ बनने से अधिक लोगों को दिखने के लिये प्रेरित लोग समाज सेवा को विशुद्ध रूप से व्यवसाय की तरह कर रहे हैं।
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अपने बारे में सूचना देने का जो जीतेन्द्र का अंदाज है वो अक्सर आत्मविज्ञापन सा लगता है. लेकिन जीतेन्द्र को लगता है कि दोस्त हैं ये नहीं झेलेंगे तो कौन झेलेगा?