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आत्मसंशय उदाहरण वाक्य

उदाहरण वाक्य
11.हिंद-युग्म के मार्च माह के यूनिकवि दर्पण साह की कविताओं से गुजरना अपने समय की युवा चेतना की आत्मसंशय की वीथियों से गुजरने जैसा है।

12.हालांकि जीवन में कई क्षण ऐसे भी आते हैं, जब आत्मसंशय घेर लेता है (दैनिक जागरण, भोपाल,1.8.2010) ।

13.अपने स्कूल और कॉलेज के सालों में हमें देखा कि बहुत से ऐसे बच्चे जो सफल होते हैं-सामाजिक मापदंड से-स्कूल के रिजल्ट में उनमें से कई आत्मसंशय कि स्तिथि में रह जाते हैं.

14.मां को कैसा लगता होगा? मां को कैसा लगता होगा? अपराध और दंडहीनता हिंद-युग्म के मार्च माह के यूनिकवि दर्पण साह की कविताओं से गुजरना अपने समय की युवा चेतना की आत्मसंशय की वीथियों से गुजरने जैसा है।

15.आत्मान्वेषण और आत्मोपलब्धि की इस कंटक-यात्रा में एक ओर वर्षा अपने परिवार के तीखे विरोध से लहूलुहान होती है और दूसरी ओर आत्मसंशय, लोकापवाद और अपनी रचनात्मक प्रतिभा को मांजने-निखारने वाली दुरूह, काली प्रक्रिया से क्षत-विक्षत।

16.मां को कैसा लगता होगा? मां को कैसा लगता होगा? अपराध और दंडहीनता हिंद-युग्म के मार्च माह के यूनिकवि दर्पण साह की कविताओं से गुजरना अपने समय की युवा चेतना की आत्मसंशय की वीथियों से गुजरने जैसा है।

17.विशेषकर जब मनुष्य चिंता, आत्मसंशय या स्वयं की योग्यता पर शंका, अभाव की भावना, शत्रु का भय और नकारात्मकता से भरा हो तो देवी के इन नामों का उच्चारण करना चाहिये, इन मंत्रों से हमारी चेतना का उत्थान होता है और हम अधिक केंद्रित, साहसी और अविचलित होने लगते हैं।

18.“हर बेचैन स्त्री तलाशती है घर प्रेम और जाति से अलग अपनी एक ऐसी ज़मीन जो सिर्फ़ उसकी अपनी हो एक उन्मुक्त आकाश जो शब्दों से परे हो” (`नगाड़े की तरह बजते शब्द`-पृष्ठ-०९) लेकिन हिन्दी भाषा-साहित्य की काव्यभूमि पर निर्मला पुतुल की ज़मीन कितनी अपनी है, हम आगे खुलेंगे इस आत्मसंशय के साथ कि उस ऊसर ज़मीन को अगर उर्वर प्रदेश न बनाया गया होता तो कैक्टस, नागफनी और बबूल सरीखे पेड़-पौधे ही वहाँ अपनी जड़ें जमा पाते!

19.लेकिन हिन्दी भाषा-साहित्य की काव्यभूमि पर निर्मला पुतुल की ज़मीन कितनी अपनी है, हम आगे खुलेंगे इस आत्मसंशय के साथ कि उस ऊसर ज़मीन को अगर उर्वर प्रदेश न बनाया गया होता तो कैक्टस, नागफनी और बबूल सरीखे पेड़-पौधे ही वहाँ अपनी जड़ें जमा पाते! देखने वाली बात है कि एक संताल आदिवासी परिवार में जन्मी-पली पुतुल का सिर्फ़ अपनी भाषा (संताली वांडमय, द्विभाषा नहीं) में अब तक एक भी कविता-संग्रह नहीं आया है।

20.हिंदी के कवियों / लेखकों में जब आत्मप्रशंसा एक महामारी की तरह फैल चुकी है, तब तुलसीदास जैसा कवि कोरे काग़ज पर लिखकर यह ‘ सत्य ' उद्घाटित कर रहे हैं, ‘ कवित विवेक एक नहिं मोरे. सत्य कहउं लिखि कागद कोरें. ' आज के परिदृश्य को देखें तो द्विवेदी युग से लेकर आज तक शायद ही कोई ऐसा कवि हो, जिसे अपनी कविता और अपनी काव्य-प्रतिभा को लेकर लेश मात्र भी तुलसीदास जैसा आत्मसंशय हो.

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