यह कह कर उसने पति के हाथ से पत्र लिया और एक मिनट में आद्यांत पढ़ कर बोली-यह सब कटु बातें कहाँ हैं? मुझे तो इसमें एक भी अपशब्द नहीं मिलता।
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अब चूंकि उस सम्मान में मैं शरीक ही नहीं हुआ बल्कि मंचासीन भी हुआ तो मुझे भी पाप का स्पर्श हो गया सा लगता है जिसके निवारण हेतु यह पोस्ट लिख रहा हूँ-आदि और आद्यांत शक्तियां हमारा कल्याण करें....
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अमित कुमार एक माँ कि पीड़ा को कुछ यूँ व्यक्त कर रहे हैं-आद्यांत पिछले पंद्रह दिनों से बेटे के यहाँ स्टोर रूम में पड़ी थी दो रूम का फ्लैट और उस पर गर्मी सड़ी थी बेटे के बड़े आग्रह पर गाँव से शहर अपने दमे के इलाज के लिए आयी थी
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अपने समय और समाज से जुड़े प्रश्नों से टकराता वातायन का सम्पादकीय हर बार की तरह पठनीय है | सच तो यह है कि वातायन धीरे-धीरे एक संपूर्ण पत्रिका का रूप लेता जा रहा है जिसे आद्यांत पढ़ कर ही मेरे जैसे पाठक को संतुष्टि मिलती है | वातायन के इस स्वरूप का व्यापक स्वागत होगा-ऐसा मेरा विश्वास है | सादर इला
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आद्यांत उसे लग रहा था कि वह भी स्टोर की एक फालतू वस्तु बन चुकी थी जिसकी जरूरत यहाँ किसी को नहीं थी जबकि गाँव के खेत खलिहानों में खेलते बच्चे और पनघट पर पानी भरती बहुए कल तक हर सुख दुःख में साथ रहती थी उसे दादी अम्मा कहते नहीं थकती थी मन ही मन कल सुबह ही वह भारी मन से शहर छोड़ने का फैसला कर चुकी थी