लेखक यह स्वीकार करता है कि यह निबन्ध निर्लिप्त तटस्थता की भावना से नहीं लिखा गया है, बल्कि इस आधार-वाक्य से इसका उद्भव हुआ है कि अलगाव की शक्तियों के प्रभुत्व वाला समाज मानवीय सम्भावनाओं की पूर्ण-प्राप्ति का गला घोंट देता है, कि ऐसे समाज में व्यक्ति का सम्मान और व्यक्ति की गरिमा केवल विचारों और दार्शनिक घोषणाओं के दायरे तक ही सीमित रहेंगी, इन्हें अमल में नहीं लाया जा सकता।