स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ऊपरी तबके का एक ही लक्ष्य पैसा कमाना रहा है, चाहे इसके लिए उन्हें अपना ईमान बेचना क्यों न पड़े और यही आदर्श हमने अपनी युवा पीढ़ी के सामने रखा है।
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देखो रमजानी मियाँ हम्म तोहरे बात से इत्तेफाक नाही रख सकत, पैसे के लिए ईमान बेचना कोई अच्छी बात है का? राशन की दुकान में लाइन लगा के जे खडा रहत है, वोहू के जिए खातिर पैसा चाही.....
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अगर सही मारजिन मिला तो यह धंधा भी कुछ बुरा नहीं है. ”मगर इस धंधे में ईमान बेचना पड़ता है”यह तो अब हर धंधे में है, इस धंधे में एक ऐसा फायदा है जो किसी और धंधे में नहीं”वह क्या है भाई?”इस धंधे में सब आप को मान्यवर कहते हैं, जो जितना बेईमान उतना ज्यादा मान्यवर”यह बात तो है”जरा रेट पता करके बताओ भाई, जरा हिसाब-किताब लगाएं, सौदा सही लगा तो ले लेंगे”जरूर'.