पर गाली गलौज और अश्लीलता को जायज मानने वाले और व्यर्थ ईश निन्दा में रुचि लेने वाले भी इस ब्लॉग जगत में हैं।
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पर गाली गलौज और अश्लीलता को जायज मानने वाले और व्यर्थ ईश निन्दा में रुचि लेने वाले भी इस ब्लॉग जगत में हैं।
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भाजपा ने जब मायावती के साथ मिल कर सरकार बनाई थी, तब क्या उसे पता नहीं था कि मायावती को ईश निन्दा में आनंद आता है?
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इसके अलावा हिन्दी वाले तो कट्टरपंथी धर्म के अनुयायी मालूम होते हैं जहां पंत / निराला / अज्ञेय की निन्दा ईश निन्दा के समतुल्य मानी जाती है ;
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किन्तु जब मैं सुनता हूं कि आज भी अफगानिस्तान या पाकिस्तान में ईश निन्दा कानून के नाम से वैसे ही जालिम कानून मौजूद हैं तो इतिहास की घटनाओं पर स्वयं न देखने के बाद भी विश्वास
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पाश्चात्य बौद्धिक जगत से प्रेरित, भ्रमित और गैर-जिम्मेदार लेखक, तात्कालिक प्रसिद्धि और बिकाऊपने के लिए ईश निन्दा का भी रास्ता अपना लेते हैं, उनका यह लेखन चर्चित होने का ऐसा ही ओछा और सस्ता हथकण्डा दिखता है।
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फिर अभी तक आडवाणी जैसे नेताओं ने इस संदर्भ में यह मुद्दा क्यों नहीं उठाया? भाजपा ने जब मायावती के साथ मिल कर सरकार बनाई थी, तब क्या उसे पता नहीं था कि मायावती को ईश निन्दा में आनंद आता है? क्या स्वयं डॉ. आंबेडकर ने ईशनिन्दा का अपराध नहीं किया थ?
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अगर राम को अनैतिहासिक बताना ईशनिन्दा है, तो दलित विचारकों, नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा राम की लगातार आलोचना करना कि वे जाति प्रथा में विश्वास करते थे, कि उन्होंने ब्राह्मणों का वर्चस्व बनाए रखने के लिए पिछड़ी जाति के तपस्वी शंबूक की बिना वजह हत्या कर दी, उन्होंने निर्दोष सीता को राज्यबदर कर दिया, क्या तथाकथित ईश निन्दा के दायरे में नहीं आता?
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याद रहे जब क्वेटा गिलगित में शियाओं का नरसंहार हुआ था, जब मानसिक विकलांगों को ईश निन्दा का दोषी ठहरा कर जिन्दा जलाया गया था, जेलों में ठूँसा गया था, जब राह चलते लोग आतंकवादी और अतिवादी बमों के शिकार हो रहे थे-तब धार्मिक नेता, इमाम, मुफ्ती, अखबार, मीडिया सबमें सहमी हुई खामोशी थी।
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ईश निन्दा ' के बाबा आदम के जमाने के कानून के अन्तर्गत मुकदमें चलाए, उनको कैसा समझा जाए? अगर इस तरह के विचारों की अभिक्ति भी ईश निन्दा है, तो सनातन हिन्दू धर्म समर्थित सती प्रथा का विरोध तो ईश-द्रोह ही हो जाएगा और उसकी सजा देने के लिए कोई सरकार कटिबद्ध हो जाय तो उसे कम से कम आधे भारत वासियों की जेल भेजना पड़ेगा।