मैं बन के मीरा... भटकूँ गली गली, ओ! गिरिधारी अंग्ग ले, रंग ले, मोहे तू संग ले अब विष का प्याला दे गिरिधारी
12.
दुनिया कहती अचल मुझे तू चंचल-चपल सुहाता है-आँचल-लुकते, दूर भागते, आते दिखता तू मुझको. आ भी जा ओ! छैल-छबीले, ना होकर भी यहाँ रहा.
13.
तक मैं अंत मेरी पीठ के माध्यम से बाहर प्रहार कर सकते हैं सोचा कि देखा! ओ! तो फिर, क्योंकि मैं किसी भी यौन वृद्धि नहीं महसूस किया है.
14.
हमेशा की तरह अत्यधिक मदिरापान की खुमारी से सोकर उठे पिता ने पुत्री से कहा, “अरी ओ! पेट जल रहा है, दो-एक रुपए तो निकाल, जरा चाय-पानी हो जाए।”
15.
इसलिए उसने पिताजी को आवाज़ लगाई-महाराज, ओ! महाराज (हमारे यहाँ ब्राह्मणों को महाराज बुलाते हैं, और महाराज बुलाने की दूसरी वज़ह यह भी है कि मेरे दादा जी अपने समय के ज़मींदार थे।)
16.
क्या ऐसा कुछ है कि मैंने कभी किसी जन्म में तुम्हारा बिगाड़ किया हो? ओ! अनजान, क्या यह सच नहीं कि मुझे तो तुम्हारा अता-पता तक नहीं मालूम कि मैं तो तुम्हें जानता तक नहीं.
17.
आप एक बार आकर प्यार से हाथ फेर कर अपने आखों के जादू से प्यार सिखला दो... हमें.... प्यार फैला दो... ओ! मेरे संत बैलेंटाइन वादा करो.... तुम.... कि.... अगले बरस जरुर आओगे!!!!
18.
आजादी के बंटवारे में कमी रह गई है अन्याय की आंधी उठी है, वेदना है चारो तरफ आंसुओं के समंदर में आंखें सभर हो गई है ओ! न्याय की देवी बता, तेरे तोल को यह क्या हुआ?
19.
हाय राम! ये क्या हो गया है आज लोगो को, क्यों दृष्टी नही जाती उनकी स्वयम के दोषों पर, क्या ईश्वर ने उन्हें जन्म दिया है इसीलिए, की-लूटपाट,छल-प्रपंच,बेईमानी बलात्कार के लिए, अरे!कुछ तो शर्म करो ओ! पशु सदृश मानवों!
20.
किरण राजपुरोहित जी भोर की पहली किरण पर लिख रही हैं-ओ! चित्रकार-ओ! चित्रकार-रंगों संग चलने वाले-आकृतियों में ढ़लने वाले-भावों के साकार-ओ! चित्रकार-सृष्टि से रंग चुराकर-मौन को कर उजागर-रचते हो संसार-ओ! चित्रकार