1935 का गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया ऐक्ट भारतीय बुर्जुआ वर्ग और पूरे राष्ट्रीय आन्दोलन के दबाव के आगे शासन विधान में बदलाव करके भारतीय बुर्जुआ वर्ग को कुछ और रियायतें देने की औपनिवेशिक नीति की अभिव्यक्ति था।
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गांधी जी के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उद्भव से पूर्व १ ९ ० ५ के बंगाल विभाजन के समय ब्रिटिश औपनिवेशिक नीति के खिलाफ पहले लोकप्रिय जनांदोलन को शुरू करने का श्रेय इन्हीं तीनों को जाता है।
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इसे राज्य-समर्थित नरसंहार की श्रेणी में उसी तरह गिना जाना चाहिए जिस तरह एकमत से आज अर्थशास्त्री और इतिहासकार बंगाल के अकाल और उन्नीसवीं सदी के दुर्भिक्षों को गिनते हैं, क्योंकि ये उस समय की औपनिवेशिक नीति, वितरण प्रणाली और खेती के विनाश का परिणाम थे.
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मुझे लगा, जैसा दरअसल बाद में स्वीकार भी किया गया, वह नीति सामान्यतया माक्र्सवादी सिद्धान्त के और विशेषतया महान् नेता लेनिन के द्वारा प्रतिपादित प्रसिद्ध औपनिवेशिक नीति के विरूद्ध थीं इसी प्रकार भारतीय कम्युनिस्ट र्पाअी के साथ मेरे मतभेदों ने स्वयं सोवियत रूस के साथ मेरे सैद्धांतिक विरोध की नींव डाल दी।
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यह ' बाँटो और राज करो ' की उसी पुरानी औपनिवेशिक नीति की निरन्तरता थी, जो ब्रिटिश शासकों ने बीसवीं शताब्दी के शुरू से ही (विशेषकर मार्ले-मिण्टो रिफॉर्म के समय से) लगातार लागू की थी और साम्प्रदायिक आधार पर हिन्दुओं-मुसलमानों को बाँटकर राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष को कमजोर करने की हर सम्भव कोशिशें की थी।
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19 वीं शताब्दी के दौरान मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल करने की औपनिवेशिक नीति पर चलते हुए ब्रिटिश इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ताओं ने मुसलमान शासकों पर आरोप लगाया कि उन सभी ने समान और अनवरत रूप से हिंदू मंदिरों को नष्ट किया तथा हिंदुओं का दमन-उत्पीड़न किया ताकि मुसलिम राजाओं के शासन की तुलना में ब्रिटिश शासन की बेहतर छवि प्रस्तुत की जा सके.