पिछले सालों में अर्थशास्त्री गलत नीतियाँ लाते ही गए, उधारवाद की कुनीति से सब बंटाधार हो गया, हम उधार के पैसों से अपने को चमकता हुआ दिखलाना चाहते थे, चाणक्य ने ऋण, शत्रु और रोग को पूर्णतया खत्म करने की नीति बताई और हमने ऋण लेकर उसको चोरों के, लुटेरों के हवाले कर दिया, नतीजा देश का धन विदेशी बैंको में काला होकर सड़ रहा है और हम बेबस हैं।