हिन्दी में भावार्थ-लहसून, शलजम, प्याज, कुकरमुत्ता तथा अन्य ऐसे खाद्य पदार्थ जो गंदे स्थानों पर पैदा होते हैं, उनका सेवन करने से बुद्धि भृष्ट होती है।
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वहां वे तेंदू, अचार, गोंद, फल-फूल, भमोड़ी (मशरूम), कंद-मूल ननमाटी, जंगली रताड़ू, बेचांदी, कडुमाटी, भमोड़ी (कुकरमुत्ता) आदि बहुतायत में मिलते थे।
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जिस प्रतिमान के आधार पर हम निराला की कविता `राम की शाक्तिपूजा ' की श्रेष्ठतासिद्ध करना चाहेंगे उसके आधार पर कुकरमुत्ता और नये पत्ते के यथार्थवाद की ही नहीं,` अर्चना' `अणिमा 'की बहुत सी कविताओं का मूल्यांकन करने नें कठिनाई होगी.
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यहाँ निराला के कुकरमुत्ता के ललकार भरे स्वर के याद करना समीचीन होगा, अबे, सुन बे, गुलाब........ माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम, हाथ जिसके तू लगा पैर सर रखकर व पीछे को भगा...
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जब मिश्र जी की संवेदना धूप के पक्ष में होती है-“ छाया के सेठ हैं निठुर कैसे, मुट्ठी भर अन्न के लिये कहाँ-कहाँ लडती है धू प.. ” तब-निराला जी की ' कुकरमुत्ता ' याद आती है ।
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यहाँ निराला के कुकरमुत्ता के ललकार भरे स्वर के याद करना समीचीन होगा, अबे, सुन बे, गुलाब........ माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम, हाथ जिसके तू लगा पैर सर रखकर व पीछे को भगा...शाहों,राजों,अमीरों का रहा प्यार तभी साधारणों से तू रहा न्यारा ।
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इसका एक रूप निराला के ' कुकरमुत्ता ' (1940) के बड़बोलेपन में है तो दूसरा रूप सांकृत् यायन की ' वोल् गा से गंगा ' (1942) नामक कथाकृति में है जो भारतीय इतिहास की धमाकेदार क्रांतिकारी व् याख् या प्रस् तुत करती है।