आने वाला हर दिन एक कोरा पन्ना हर दिन लिखती हूँ भावों की इबारतें कभी भरती हूँ आशाओं की सरिता प्रवाहों के बीच पड़े बड़े-बड़े पत्थर उनपर जमी वक़्त की काई साथ चलते दो किनारे पेड़ों की घनी कतारें डालियों पर गूंजता पंछियों का कलरव
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मेरी डांट-फटकार के बावजूद भी उसके गणपति से लगाव में कोई बदलाव दूर-दूर तक आता दिखाई नहीं देता है वह आज भी घर की दीवार से लेकर जो भी उसे कोरा पन्ना या कापी मिलती है तो वह अपनी कल्पना शक्ति से आड़ी-टेढ़ी रेखाओं से गणेश के चित्र उकेरने से बाज नहीं आता है।
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लिखू तो मैं क्या लिखूं, यूं तो बाते हजार हैं देखो अगर ध्यान से तो कोरा पन्ना भी बहुत कुछ कहता है स्याही से लिखे पैन से ही दिखाई देता है यूं तो खुला आसमान भी बहुत कुछ कहता है जितना देखोगे दिखेगा, वैसे तो लोग आखें होते हुए भी अधें होते हैं पढना-पढाना यूं तो अलग-अलग बाते हैं किताब मे छपा देखोगे तो बात एक ही है।