वो तो एक खुली किताब था, जो गुजरी जिन्दगी के हर पलो को खुले पन्ने मे बिखेरे पड़ा था।
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हालांकि 15 जून 2011 को खुले पन्ने ब्लॉग पर प्रकाशित क्या है हिंदी सिनेमा का यथार्थवाद काफी पसंद किया गया ।
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हालांकि 15 जून 2011 को खुले पन्ने ब्लॉग पर प्रकाशित क्या है हिंदी सिनेमा का यथार्थवाद काफी पसंद किया गया ।
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लेख और अमित जी खुले पन्ने के लिखे कुछ सपनों के मर जाने से नामक प्रेरणास्पद लेख को पढ़ने के [...]
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खुले पन्ने पर पेंसिल पकड़ते भी घबड़ाहट हो रही थी तो आसान तरीका सोचा..स्टेफनी रियु का एक स्केच देखकर बनाया ।
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पहले से खड़े बाबू की बात बड़े साहब की समझ में आ गयी और उसने फाइल के सामने खुले पन्ने पर हस्ताक्षर करके फाइल सरका दी।
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इधर डायरी के इस खुले पन्ने पर लिखे गये इन अनर्गल पंक्तियों को देखकर यूं ही एक मासूम-सा {?} ख्याल आया है कि जो मैं इन पंक्तियों को ऐसे लिखूँ:-
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न जाने कितनी मिस कॉल पड़ी हैं, कितने मैसेज जिनके जवाब नहीं दिए गए, कितने लोग होल्ड पर इंतजार कर रहे हैं, कितनी किताबों के खुले पन्ने मेरे वापिस लौटने का इंतजार करते-करते ऊंघने लगे हैं।
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मानना पड़ेगा कि अफ़लातून जी के डायरी के पन्ने सीधे कुछ नहीं कह रहें...डायरी के खुले पन्ने वैसे ऐसे ही अपेक्षित थे...पता नहीं कितने लोगों ने अफ़लातून जी की कवितायें पढ़ी हैं...मुझे अक्सर लगा है कि तबियत से वे कवि ही ज्यादा हैं।
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पहले कयी बार की तरह अपने-आप से ही बात करने लगा हूँ और क्या पता बाद में स्वयं को ही स्वप्न में देखूँ……बेड पर औंधे पड़े हुए, बिना धारियों वाले श्वेत कागज़ों पर वाक्यों को सीधा रखने के संघर्ष में तल्लीन और खुले पन्ने पँखे के घुमावदार वायु प्रवाह में उड़-उड़ जाते होंगे।