फैला देता हूँ मकड़जाले तरह-तरह के ढँकते हैं वे जितना करते हैं उतना ही निर्वस्त्र सिहरती है त्वचा मकड़ियों के चलने से और वे बुनती ही जाती हैं ढँकने को तुम्हें घिनौने ढंग से आकर्षक मकड़-जाले और पहुँचते-पहुचते संगम तक हो जाती है सरस्वती गुम फिर वहीं इन्द्रधनुषी पुल पर टंगा मैं सुनता हूँ रुदन तृप्ति की अतृप्ति से जन्मे क्षोभ का जिसे धारण नहीं किया गर्भ में कभी
12.
हां, इस अर्थ में अस्वाभाविक जरूर हे कि यह किसी ने नहीं सोचा था कि साहित्य के आतताइयों के पाप का घड़ा इतनी जल्दी भर जाएगा और वह भी इतने घिनौने ढंग से फूटेगा-ऐन उन्हीं के सिरों पर, जो ‘देव दनुज नर सब बस मोरे' वाले रावणी गर्व में चूर हो कर निर्भय घूम रहे थे और यह मान कर चल रहे थे कि हमने इस समूची पृथ्वी को ‘वीर-विहीन' कर डाला है।
13.
हां, इस अर्थ में अस्वाभाविक जरूर हेै कि यह किसी ने नहीं सोचा था कि साहित्य के आतताइयों के पाप का घड़ा इतनी जल्दी भर जाएगा और वह भी इतने घिनौने ढंग से फूटेगा-ऐन उन्हीं के सिरों पर, जो ‘देव दनुज नर सब बस मोरे' वाले रावणी गर्व में चूर हो कर निर्भय घूम रहे थे और यह मान कर चल रहे थे कि हमने इस समूची पृथ्वी को ‘वीर-विहीन' कर डाला है।
14.
हां, इस अर्थ में अस्वाभाविक जरूर हे कि यह किसी ने नहीं सोचा था कि साहित्य के आतताइयों के पाप का घड़ा इतनी जल्दी भर जाएगा और वह भी इतने घिनौने ढंग से फूटेगा-ऐन उन्हीं के सिरों पर, जो ‘ देव दनुज नर सब बस मोरे ' वाले रावणी गर्व में चूर हो कर निर्भय घूम रहे थे और यह मान कर चल रहे थे कि हमने इस समूची पृथ्वी को ‘ वीर-विहीन ' कर डाला है।