‘ हिंदी दुर्दशा देखी न जाई ' के हताश करनेवाले हाहाकार और ‘ कुछ बात है कि हिंदी मिटती नहीं हमारी ' की विलक्षण आत्ममुग्धता के दो अतिवादी शिविरों में बंटे बुद्धिजीवियों को समान संदेह से देखते, अंग्रेज़ी न जाननेवाले विशाल भारतीय समाज को भी इधर एक मिलावटी भाषा ‘ हिंग्रेज़ी ' में उच्चताबोध का छायाभास होने लगा है.