यदि इन कालजयी और निर्विवाद लगने वाली पोस्ट, नोट्स, टिप्पणियों, जुमलों को स्वतंत्र रूप से प्रस्तुत कर दिया जाये तो इनके जनक-जननी अपने आत्म सम्मान में बिफर जाते हैं।
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अर्थात जिन माता-पिता ने अपने अनथक प्रयत्नों से पाल पोसकर मुझे बड़ा किया है, अब मेरे बड़े होने पर जब वे अशक्त हो गये है तो वे जनक-जननी किसी प्रकार से भी पीड़ित न हो, इस हेतु मैं उसी की सेवा सत्कार से उन्हें संतुष्ट कर अपा आनृश्य (ऋण के भार से मुक्ति) कर रहा हूं।'
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शास्त्रों में व्याख्यायित होने के पूर्व यह लोक-परंपरा कैसे विकसित हुर्इ होगी? दिवंगत अपनों को जन्मतिथि के स्थान पर मृत्युतिथि पर सम्मानांजलि अर्पित करने की परंपरा के संबंध में विचार करें तो प्राचीन काल के कुछ महत्वपूर्ण व्यावहारिक तथ्य इस प्रकार उभरते हैं-संतान यह जानती थी कि उनके जनक-जननी ने उसका सप्रेम लालन-पालन जन्मपूर्व से युवावस्था पर्यन्त किया है।
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जैनाचार्य विशुद्धसागर महाराज ने उपदेश देते हुए कहा कि वंश को सुरक्षित रखना है, तो संतान की रक्षा करो बुरे भावों से, बुरी संगति है, सनातन धर्म को जीवंत रखना चाहते हो तो संतान को संस्कारों से संस्कारित करो, संतान संस्कारवान होगी तो सनातन धर्म सुरक्षित रहेगा, जनक-जननी द्वारा यदि संतान को कोई श्रेष्ठ उपहार है [...]
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हैवानों अब तो चैन से सो जाने दो, बाद में कर लेना हिसाब आहिस्ता-आहिस्ता. ” आधुनिक समाज में पढी-लिखी लड़कियों को भी आर्थिक विपन्नता या अभाव में जब विवाह की वेदी पर बैठने से महरूम होना पड़ता है या सुरसा की मुख के तरह बढ़ती दहेज़ सामग्री के लम्बे फेहरिस्त से सामना करना पड़ता है तो वे बेबस माता-पिता और शेष जनक-जननी के लिए सन्देश बन जाते हैं कि अब भी सम्हलो ; मत बनो बेटियों के पालक.