प्रवीण शाह जी मौजूदा स्थितियों को एक डिस्टोपिया के रूप में देखते हैं और उनकी दृष्टि में कोई दोष नहीं है किन्तु मनुष्य को हर हालात में आशावादी होना चाहिए और निरंतर प्रयास का दामन नहीं छोड़ना चाहिए-यावत् कंठ गतः प्राणः तावत कार्य प्रतिक्रिया-कह चुके हैं हमारे पूर्वज!
12.
यथार्थवाद की इस समझ से साहित्य की रचना में “ यथार्थवादी पद्धति ” को ही अपनाना (अर्थात् यूटोपिया, डिस्टोपिया, रूपक, फैंटेसी वगैरह को यथार्थवादी रचना के लिए त्याज्य समझना) आवश्यक नहीं रहता और यथार्थवादी रचना उन रूपों में भी की जा सकती है, जो आधुनिकतावादी माने जाने के कारण यथार्थवादियों के लिए त्याज्य समझे जाते थे।