' कुनबा अभी बचा है ' में दंगई की पहचान नहीं करने और कुनबे के बचे होने का जो चित्र है वो उस मजदूर की पूरी कहानी कह जाता है ।
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जिन्होंने सरदारों का दमन किया, वे दंगई एक सरदार के सरकार में ‘ सरदार ' होने के बावजूद साफ़ बच निकले, जबकि आवश्यकता उन्हें ‘ टाइट ' करने की थी।
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सभी चाहते है कि दंगई किसी भी समुदाय का हो उसके विरूद्व कार्यवाही हो किन्तु शासन व पुलिस प्रशासन एक पक्षीय कार्यवाही कर रहा है, जिससे न तो शांति बन रही है और न ही समझौते की प्रक्रिया चल रही है।
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“ आराम कुर्सियों......... ”, सोशल नेटवर्किंग साईट से इन्क़लाबी नारों का उद्घोष करती जनता पर सटीक तंज। “ मजदूर दंगई....................... ”, आह “ लिखने की दौड़................ ”, बहुत खूब शार्दूला दी, ब्लॉग और फेसबुक और ऐसी ही तमाम साईट पर लगी पोस्ट की ज़मीनी हकीकत।
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अगर आप ध्यान से सोचें तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं मेरे देश के आम परिवार का पितामह कितने ही तीर खाकर अब तक ज़िन्दा है महंगाई का तीर भुखमरी का तीर ग़रीबी का तीर बेरोज़गारी का तीर अशिक्षा का तीर कुशिक्षा का तीर दंगई का तीर नंगई का ती र...
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देखिये आप उस संवाददाता को फ़िर से ढूढिये और उसे बतलाइये कि स्थानीय दंगों और उनके सस्ते कामचलाऊ दंगई इंस्टिट्यूटॊं की कवरेज से क्या होगा यदि कैरियर बनाना हो तो एड़्वांस डिप्लोमा और हाईटैर्क दंगाईयों के इंटरव्यू कवर करने का साहस जागाए! चलिए मसाला आपका, घी पाठकों का, ब्लागधारक के लिए अगली पोस्ट का मतला तैया र.
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बधाई के साथ एक कविता का अंश क्या आप सोच सकते हैं सर से पाँव तक असंख्य तीरों से बिन्धकर भी कोई ज़िन्दा रह सकता है अगर आप ध्यान से सोचें तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं मेरे देश के आम परिवार का पितामह कितने ही तीर खाकर अब तक ज़िन्दा है महंगाई का तीर भुखमरी का तीर ग़रीबी का तीर बेरोज़गारी का तीर अशिक्षा का तीर कुशिक्षा का तीर दंगई का तीर नंगई का तीर...