सतीश जी!...रचना पढ़ कर आँखे नम हो उठी!...बुजुर्गों की ऐसी दीन अवस्था के लिए क्या आज का युवा वर्ग जिम्मेदार नहीं है?...माना कि सभी युवा ऐसे नहीं होते...लेकिन जो अनजाने में भी अपने बड़ों का सन्मान करने से चूक जाते है,उन्हें सुधर जाना चाहिए!...बहुत बढ़िया रचना!
12.
सात-आठ के आसपास की सदस्यों वाला यह परिवार, जिसमें दादा-दादी से लेकर पोता-पोती शामिल थे, इस रास्ते से स्कूल आते-जाते हम स्कूली बच्चों के मन में मिश्रित विचार उत्पन्न करता-उत्सुकता और कौतूहल का, भय का, उनकी दीन अवस्था के प्रति दया व लाचारी का, उनके गंदगी भरे रहन-सहन के परिवेश के प्रति घृणा का।
13.
हम सौ वर्षों तक दीन अवस्था से बचे रहें, दूसरों पर निर्भर न होना पड़े, हमारी सभी इंन्द्रियां-कर्मेन्द्रियां तथा ज्ञानेन्द्रियां, दोनों-शिथिल न होने पावें (अदीनाः स्याम शरदः शतम्) ; ओर यह सब सौ वर्षों बाद भी होवे, हम सौ वर्ष ही नहीं उसके आगे भी नीरोग रहते हुए जीवन धारण कर सकें (भूयः च शरदः शतात्) ।