आँगन का अमुवा ताना मारता है, मुंडेर पर कौवा भी कुछ बोलता है छज्जे पर गिलहरी अब भी दाना पूछे चौखट का आल्या घड़ी-घड़ी खीझे तुलसी का दीपक तेल मांगता है कमरा खूँटी पर इंतज़ार टाँकता है तिपाई का पैर कुछ चरमराये हर एक कोना बीते दिन सुनाये कहाँ चले गए थे तुम आंखों के नूर कैसे रहे हमसे इतनी दिन दूर | टूटते दरख्तो के बीच एक सफ़र किया टूटते दरख्तो के बीच, कराहों से सजे मंज़र, पीले पत्ते,मुरझाए फूल बौराई टहनियों से टपकते आँसू, नीचे दरकती ज़मीन, अंदर उमड़ते तूफान, उपर से मौन पड़े हैं, गमगीन