नामवर सिंह के अलावा एक और आलोचक नंदकिशोर नवल की कविता की किताब प्रकाशित है जिन्होंने सियाराम तिवारी के साथ संयुक्त रूप से प्रकाशन संस्थान ने द्वाभा के नाम से छापा है ।
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जब शाम सिंदूरी होती है और पत्तों पर गुलाबी कांटें उग आते हैं, जब साँझ की काली छाया रक्ताभ पानी पर उतरती है और एक शर्बती द्वाभा पूरी सृष्टि में फ़ैल जाती है तब उसी द्वाभा की ओट में छिप कर मैंने एक कविता लिखी है........
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जब शाम सिंदूरी होती है और पत्तों पर गुलाबी कांटें उग आते हैं, जब साँझ की काली छाया रक्ताभ पानी पर उतरती है और एक शर्बती द्वाभा पूरी सृष्टि में फ़ैल जाती है तब उसी द्वाभा की ओट में छिप कर मैंने एक कविता लिखी है........
14.
वेग से नृसिंह ने हिरण्यकशिपु को पकड़ लिया और द्वाभा की वेला में (न दिन में, न रात में), सभा की देहली पर (न बाहर, न भीतर), अपनी जॉंघों पर रखकर (न भूमि पर, न आकाश में), अपने नखों से (न अस्त्र से, न शास्त्र से) उसका कलेजा फाड़ डाला।
15.
द्वाभा का वरदान, सभी कुछ अर्धस्फुट, झिलमिल है, स्वप्न स्वप्न से, हृदय हृदय से मिलकर सुख पाते हैं यदि प्रकाश हो जाए और जो कुछ भी छिपा जहाँ है, सब-के-सब हो जाएँ सामने खड़े नग्न रूपॉ में, कौन सहेगा यह भीषण आघात भेद विघटन का? इसीलिए कहती हूँ, अब तक जितना जान सके हो, उतना ही है अलम;
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वेग से नृसिंह ने हिरण् यकशिपु को पकड़ लिया और द्वाभा की वेला में (न दिन में, न रात में), सभा की देहली पर (न बाहर, न भीतर), अपनी जॉंघों पर रखकर (न भूमि पर, न आकाश में), अपने नखों से (न अस् त्र से, न शास् त्र से) उसका कलेजा फाड़ डाला।
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द्वाभा का वरदान, सभी कुछ अर्धस्फुट, झिलमिल है, स्वप्न स्वप्न से, हृदय हृदय से मिलकर सुख पाते हैं यदि प्रकाश हो जाए और जो कुछ भी छिपा जहाँ है, सब-के-सब हो जाएँ सामने खड़े नग्न रूपॉ में, कौन सहेगा यह भीषण आघात भेद विघटन का? इसीलिए कहती हूँ, अब तक जितना जान सके हो, उतना ही है अलम ; और आगे इससे जाने पर, स्यात्, कुतुहल-शमन छोड़ कुछ हाथ नहीं आएगा.