और फ़िर नदी तीर कान्हा और कोई तो बुलाये दोनों में कितनी कसक! वाह! फ़िर अपना कमेट में हाथों-हाथ लिखी पंक्तियाँ देखीं as a post,...
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गढ़वाल में एक पुरानी कहावत कही जाती है, “ नदी तीर का रोखड़ा, जत कत सोरों पार यानी नदी के किनारे मकान बनाने वालों का परिवार नष्ट हो जाता है. ”
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भोगहा जी गाते हैं:-आठों गण सुर मुनि सदा आश्रय करत सधीर जानि नारायण क्षेत्र शुभ चित्रोत्पल नदी तीर देश कलिंगहि आइके धर्म रूप थिर पाई दरसन परसन वास अरू सुमिरन ते दुख जाई।।
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दरअसल, विकास की अंधी दौड़ में हम \ ' नदी तीर का रोखड़ा, जतकत सैरो पार \ ' (नदी किनारे रहने पर वह कभी भी मुसीबत का सबब बन सकती है) वाली कहावत भी भूल बैठे।
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नहीं जानते हुए कुछ भी ठीक-ठीक संभावित दृश्यों के आनन्द में हैं मग्न लयबद्ध क्रम में उठते-गिरते हैं हाथ होंठ गुनगुनाते हैं लोरी साथ बैठा अतीत सिर हिलाता है गीत की टेक पर पुलकित होता है सोच संग्रहालय में रखा पालना बनेगा पहचान भविष्य वापस मुड़ देखेगा मुझे काम समेट औजार संभाल दौड़ पड़ता है हाथ-मुँह धोने नदी तीर अतीत बनता व्यतीत होता वर्तमान