मनुष्य क्यों चाहे उसमें विश्वास करना? क्योंकि अपने गूढ़ातिगूढ़ अन्तरतम में वह नीतिवादी है।
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अब सिद्धान्तवादी और नीतिवादी होना हमारे समाज में दकियानूस और पुरातनपंथी होने का पर्याय बन गया है।
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अब सिद्धान्तवादी और नीतिवादी होना हमारे समाज में दकियानूस और पुरातनपंथी होने का पर्याय बन गया है।
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पुरोहित, नीतिवादी, तथाकथित धार्मिक लोग, पोप, शंकराचार्य, और दूसरे लोग काम की सतत निंदा करते है।
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प्रेम और नीतिवादी संदेश के साथ वे मानवीय संवेदनाओं को उनके उच्चतम स्तर तक ले जाकर उन्हें सामाजिक आदर्श का रूप दे देती हैं.
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और यह भी सच है कि बीते समय में चीनी समाज पर लाओत् से की जीवन दृष् टि के बजाय कंफ्यूशियस के नीतिवादी विचार अधिक प्रभावी सिद्ध हुए।
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दूसरी ओर सुकरात, प्लेटो, जेनोफीन, सिसरो जैसे नीतिवादी दार्शनिकों के प्रभाव में पश्चिमी समाज में समानता, आदर्श और नैतिकता के लिए अपेक्षाकृत अधिक गुंजाइश थी.
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खाने और पीने के मामले में परसाई हिन्दी के शुद्धतावादी, बम्हन नीतिवादी लेखकों से बिल्कुृल भिन्न हैं और जितनी उन्मुक्तता से वे लिखते हैं, उतनी ही उन्मुक्तता से भी जीते हैं।