यूरोप में भी मध्य युग में ऐसा ही दृष्टिकोण था लेकिन फिर कह दूं कि यह दार्शनिकों तक ही सीमित था और सगुण सत्य से इन्कार कर करके उसे नकली मानता था जबकि आम लोग ईसाई मत को नैतिक विश्वास के रूप में मानते थे और उस हद तक स्वीकार करते थे ।
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उन्होंने कहा कि केंद्र की सरकार भले ही संसद में जोड़-तोड़ से बहुमत में हो, लेकिन आम जनता में वह अपना नैतिक विश्वास खो चुकी है और इतिहास गवाह है कि जिस राज में प्रजा दुखी हो और चारों तरफ अराजकता का माहौल हो, वो राज ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रह सकता।
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अहिंसा को एक नैतिक विश्वास के रुप में स्वीकार करने का मतलब तो यह हुआ कि हम यह मान लें कि समाजवाद के लिए संघर्ष के विकास की किसी भी स्थिति में और किसी भी स्तर पर सत्ताधारी वर्ग जनता के विशाल हिस्से की भावनाओं को रोकने के लिए हथियारों का उपयोग नहीं करेंगे और उनके द्वारा सभी परिस्थितियों में जनवादी परंपराओं का पालन तथा जनवादी निर्णयों का सम्मान किया जायगा।