गीता-18. 48अतः दोष युक्त कर्म होने पर भी सहज कर्मों को करते रहना चाहिए क्योंकि-कर्म के बिना नैष्कर्म्य की सिद्धि नहीं मिलतीनैष्कर्म्य कि सिद्धि ही ज्ञान योग की परा निष्ठा है गीता-18.
12.
न कर्म्नाम्नार्म्भन नैष्कर्म्य पुरुशोश्नुते न च संयास्नादेव सिद्धिम समधिगाछ्ती!!! MEANING: कोई भी व्यक्ति वैदिक कर्त्तव्य को पूर्ण करे बिना अपने कर्म के फल से नहीं बच सकता और उन कर्त्तव्य को न करने से कभी निपुणता नहीं आएगी.
13.
भोग तत्त्वों की परख हो जानें के बाद उनके सम्मोहन का प्रभाव नही होता और वह प्रवृत्तिपरक कर्म निबृत्तिपरक कर्म हो जाते हैं जहाँ नैष्कर्म्य की सिद्धिके साथ ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञानप्राप्ति, ज्ञान योग है जो ब्रह्मऔर जीवात्माके एकत्वकी अनुभूति कराता है ।