प्रकृति के इस प्रकोप से यहां रह रहे चमोली, पौड़ी और अल्मोड़ा जनपद के सैकड़ों पशुचारक अपने पशुओं को आवारा छोड़ने को विवश हैं।
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रम्माण के दौरान होने वाले मुखौटा नृत्य के कथानकों में पहले के पशुचारक समाज की पर्यावरणीय चिंताएं तथा सामाजिक सरोकार भी झलकते हैंदरअसल, जोशीमठ तहसील के कुछ गांवों में रामायण गायन, मंचन और मुखौटा नृत्यों की अनूठी लोक उत्सव परंपरा है.
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दासों को बल-प्रयोग और धर्म-आधारित सामाजिक रीति-विधानों द्वारा नियन्त्रित किया जाता था, अतः उस सभ्यता की बिखरी हुई आबादी के पुरोहित, घुमन्तू पशुचारक आर्यों के कबीलाई पुरोहितों से टोटम और वर्जनाओं (totems and taboos) और धार्मिक अनुष्ठानों के मामले में उन्नत थे।
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इसमें वन विभाग के द्वारा की गई धाँधलियों के अलावा मुख्य बात है कि ये पशुचारक जहाँ बसाये जा रहे हैं, वह सूखी जगह है और जो भूमि इन्हें दी जा रही है, वह उनके जानवरों के लिए घास उगाने के लिये पर्याप्त नहीं होगी।