इस उत्सव में गै (गाय) और खतड़ का द्वन्द है, जिसमें कामना की गयी है कि खतड़ को जलाकर जो ऊर्जा मिलेगी, उससे गाय शीत में अपनी रक्षा कर लेगी और खत्तड़ (खुरपका रोग) पहाड़ी ढाल (भ्योल) में उपेक्षित गिरा होगा।
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लेकिन तीखे पहाड़ी ढाल पर, जहां अपने शरीर का भार संभालना भी मुश्किल है, वहाँ यात्रियों के भारी बैगों, सूटकेसों आदि को पीठ पर लादे हुए नेपाली मजदूर, इस राहत-बचाव अभियान के ऐसे खामोश सिपाही हैं, जिनके श्रम को न कहीं दर्ज किया जाएगा, न कोई प्रशंसा वे पायेंगे.
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पहाड़ के निवासी होने के चलते हमारे लिए तो यह अपेक्षाकृत कम मुश्किल था, लेकिन सेना और आई. टी. बी. पी. के जवानों द्वारा लोगों को चढ़ने-उतरने में मदद किये जाने के बावजूद, बाहरी यात्रियों के लिए, तीखी पहाड़ी ढाल की ऊपर तक चढ कर नीचे उतरना बेहद कष्टकारी और डरावना अनुभव है.