राधा का विकास पितृपक्षीय सरोकारों की एक ऐतिहासिक आवश्यकता जैसी लगती है जिसके बिना वे स्त्री का उपयोग अपनी सत्ता और वर्चस्व को बनाये रखने के लिए शायद नहीं कर पाते।
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नवजागरण के समाज चिन्तकों ने परम्परा के प्रति जो नजरिया अख्तियार किया वह भी कमोवेश इसी पितृपक्षीय भाव भूमि पर खड़ा दिखता है, जो अपना चेहरा सुर्खरू रखने के लिये लगातार झूठ का सहारा लेता रहा है।
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एक तरफ सूफी दर्शन सल्तनत में पनप रही विलासिता का विरोध कर रहा है दूसरी तरफ ज्ञानमार्गी धारा ब्रह्म को जमीन पर उतार लाने को बेताब है वहीं इन पितृपक्षीय विलासिताओं को जीवनोत्सव कहा जाना कैसे सम्भव है?
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कबीर की कविता पर सती प्रकरण को लेकर बात करना इसलिये जरूरी है क्योंकि अब तक का सोचविचार का पितृपक्षीय दायरा मध्ययुगीन साहित्य में अधिक से अधिक श्रंगार और मात्र कुछ धार्मिक आडम्बरों के विरोध भर को ही देख पाता है।
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कबीर की कविता पर सती प्रकरण को लेकर बात करना इसलिए भी जरूरी है कि अबतक का सोच विचार का पितृपक्षीय दायरा मध्ययुगीन साहित्य में अधिक से अधिक श्रृंगार और मात्र कुछ धार्मिक आडम्बरों के विरोध भर को ही देख पता है.
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स्त्री के पक्ष को सामने लाने के लिए स्त्री जीवन के सूक्ष्मतम से लेकर स्थूल प्रसंगो के प्रति बने हुए पूर्वग्रहों और मूल्यनिर्णयों की समीक्षा के बीच से ही राह निकलेगी और वह पितृपक्षीय हिन्दी मानसिकता के दंश से अपने आपको बचा पायेगी।
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इसका वैयाकरणिक महत्व जो भी हो पर इस सूत्र की निर्मित के पीछे जो सामाजिक प्रक्रिया कार्य कर रही है वह यह बताती है कि राधाओं और हिंसा के ऐतिहासिक सम्बन्ध का अनुभव पितृपक्षीय शास्त्र रचना में विभाव की भूमिका में दिख रहा है।
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इसी राजनीति का हिस्सा है कि स्त्रीलिंग (आत्मा) जब भी पुल्लिंग (धर्म, पुण्य, पाप) के साथ जायेगी तो पितृपक्षीय व्यवस्थाओं के ठीक ठीक सादृश्य में विलीन होकर पुल्लिंग (धर्मात्मा, पुण्यात्मा, पापत्मा) का निर्माण ही करेगी.
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पितृपक्षीय मानसिकता में निर्मित हुए हिन्दी के आधुनिकबोध ने अपने बनाये गये दायरे में प्राय: ऐसे रवैये अख्तियार किये जिनसे समंजन और सहअस्तित्व (विरुध्दों के सामंजस्य) को ही बनाये रखा जा सके चाहे भले ही इसके लिये जरूरी से जरूरी मुद्दे का दबाना ही क्यों न पडे।
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आचार्य द्विवेदी राधा के इस विवेचन में सूरदास पर पहुँचते ही धार्मिक भीति से घिर जाते हैं और राधा के व्यक्तित्व की महिमा इस बात में खोजने लगते हैं कि उसने पितृपक्षीय आकांक्षाओं के अनुकूल किस सीमा तक अपने को, अपनी इच्छाओं को, अपनी आवश्यकताओं को और सम्पूर्णत: अपने होने को मिटाया।