अलग-अलग राज्यों के केन्द्र के साथ और आपस में हो रहे टकरावों को गौर से देखिए, तो पता चलेगा कि इस माला को पिरोने वाला कितना कमज़ोर हो चुका है.
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भारतीय लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में देखें तो, हालांकि आदिवासियों को एक सूत्र में पिरोने वाला तत्व उनकी सांस्कृतिक या पारिस्थितिक भिन्नता नहीं है, बल्कि उनकी सामाजिक और आर्थिक अवसरविहीन परिस्थितियां हैं.
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अब शब्द पिरोने वाला उपहार भी दे तो क्या... शब्द ही न..:) और मज़े की बात है कि हठ करके वापस हम उनसे भी कुछ न कुछ लिखवा लेते हैं...
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किन्तु सदा की भॉंति, नानाविधी उत्सवों को एक साथ पिरोने वाला एक सर्वमान्य सूत्र है, जो इस अवसर को अंकित करता है यदि दीपावली ज्योति का पर्व है तो संक्रान्ति शस्य पर्व है, नई फ़सल का स्वागत करने तथा समृद्धि व सम्पन्नता के लिए प्रार्थना करने का एक अवसर है।
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ग़ज़ल दिलों को पिरोने वाला अब वो तागा नहीं मिलता रिश्तों में नमीं प्यार में सहारा नहीं मिलता यूँ ही बैठे रहो, चुप रहो, कुछ न कहो लोग मिल जातें हैं दोस्त गवारा नहीं मिलता वो जिसे हम तका करते थे सहर तक अंधेरी रातों को अब वो सितारा नहीं मिलता रेत बंद हाथों से फिसलती [...]
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महा शिव रात्रि पर्व पर सत्संग कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए भोले जी महाराज ने कहा कि जिस तरह माला में विभिन्न प्रकार के फूल होते हैं, उसको पिरोने वाला धागा एक ही होता है, उसी तरह हिन्दू मुस्लिम, सिख, ईसाई, आस्तिक एवं नास्तिक सभी ईश्वररूपी माला के सुन्दर फूल हैं और आत्मा रूपी धागा सभी के अंदर समान रूप से मौजूद है।
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क्या यह रचना है? या कोई सत्य घटना? रचना है तो अच्छी नहीं है, क्योंकि लेखकीय हस्तक्षेप जो घटना को रचना में पिरोने वाला रहा होगा, दिखाई नहीं देता और यदि सत्य घटना है तो सीधा-सीधा सवाल है कि जब स्त्रियां बहन, मां या अन्य किसी भी रिश्ते में होती हैं तो उनकी मानसिकता में वह स्त्रीपन क्यों नहीं दिखता जो उसको एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में स्थापित करे? क्यों वही सामंती मानसिकता बार बार झलक जाती है जो व्यक्ति के निजी्पन के खिलाफ़ होती है?