सबसे दयनीय बात तो यह है कि खरे जितेन्द्र श्रीवास्तव की जिस कविता में पुनरूक्ति दोष देख रहे हैं वहां तो पुनरूक्ति दोष का कोई संदर्भ ही नहीं है।
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सबसे दयनीय बात तो यह है कि खरे जितेन्द्र श्रीवास्तव की जिस कविता में पुनरूक्ति दोष देख रहे हैं वहां तो पुनरूक्ति दोष का कोई संदर्भ ही नहीं है।
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सबसे दयनीय बात तो यह है कि खरे जितेन्द्र श्रीवास्तव की जिस कविता में पुनरूक्ति दोष देख रहे हैं वहां तो पुनरूक्ति दोष का कोई संदर्भ ही नहीं है।
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सबसे दयनीय बात तो यह है कि खरे जितेन्द्र श्रीवास्तव की जिस कविता में पुनरूक्ति दोष देख रहे हैं वहां तो पुनरूक्ति दोष का कोई संदर्भ ही नहीं है।
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सबसे दयनीय बात तो यह है कि खरे जितेन्द्र श्रीवास्तव की जिस कविता में पुनरूक्ति दोष देख रहे हैं वहां तो पुनरूक्ति दोष का कोई संदर्भ ही नहीं है।
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सबसे दयनीय बात तो यह है कि खरे जितेन्द्र श्रीवास्तव की जिस कविता में पुनरूक्ति दोष देख रहे हैं वहां तो पुनरूक्ति दोष का कोई संदर्भ ही नहीं है।
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कविता के प्रारंभ में “ मौन, तुम इतने मुखर क्यों हो? ” और अंत में “ मौन, तुम इतने वाचाल क्यों हो ” पुनरूक्ति जैसा लगता है।
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इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिएकि राजनैतिक टकराव का कारण धार्मिक वैमनस्य-हिन्दुओं और मुसलमानों के बीचधार्मिक वैभन्सय-में ढूँढ़ना एक कार्य-कारण सम्बन्ध का स्पष्टीकरण नहीं, यह तो एक पुनरूक्ति या टाटोलौजी है.
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इन सब शब् दों का भ्रामक प्रयोग और सम् यक प्रयोग इसके पहले के लेख में भी सम् पादित किया जा चुका है अत: यहां पुनरूक्ति करने की आवश् यकता नहीं अनुभूत है।
20.
यहाँ विचारणीय यह है कि यदि ' सांख्य ' शब्द ज्ञानर्थक है, सम्प्रदाय-विशेष नहीं, तव सांख्य ' बुद्धि ' कहकर पुनरूक्ति की आवश्यकता क्या थी? बुद्धि शब्द से कथनीय ' ज्ञान ' का भाव तो सांख्य के ' ख्याति ' में आ ही जाता है।