जैसा कि सुप्रसिद्ध लेखक मुद्राराक्षस ने कहा है कि “जन लोकपाल भारतीय सर्वण मध्यवर्ग का एजेण्डा है जो अति आधुनिक रूप में भी संघ की साम्प्रदायिकता को अपने में समेटे है।” दलित टुडे के संपादक एस. के. पंजम का मानना है कि जन लोकपाल सवर्ण हिन्दु पुनरूत्थानवाद का नया पैंतरा है।
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भाकपा के प्रदेष सचिव डाॅ गिरीष ने कहा कि वामिक जौनपुरी के बहाने यह यात्रा किसान-मजदूरों की समस्यायें उठाने के साथ-साथ फिरकापरस्ती, जातिवाद, रूढ़िवाद और पुनरूत्थानवाद पर भी चोट करती है और प्रगतिषील षक्तियों का यह दायित्व है कि इस जनजागरण अभियान में कलाकारों की पूरी मदद की जाये।
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वह पूरा दौर ऐसा था जब हिन्दू पुनरूत्थानवाद से मुकाबले के लिए दलित-मुस्लिम और पिछड़ों की एकता की बात राजनीति में खूब की जा रही थी और कुछ लोग इस एजेंडे को साहित्य में भी लागू कर रहे थे, यहां तक की कहानियां भी इस समीकरण के अनुकूल लिखवाई जा रही थीं, पर जहां इन समुदायों की जमीनी स्तर पर वर्गीय एकता बन रही थी उसे साहित्य में आमतौर पर नजरअंदाज किया गया.
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देखने की बात यह है कि जिस प्रकार प्रगतिवादी युग में पुनरूत्थानवाद की अधोगामी प्रवृत्ति से लैस, अनेक लेखक प्रगतिशीलता का मुखौटा ओढ़कर प्रगतिवादी दस्ते में खड़े हो गए, ठीक उसी प्रकार वे लोग जो प्रगतिशीलता के चेहरे पर जब तक प्रतिष्ठा की चमक देखते रहे, उसके साथ जुड़े रहे और जब यह दीप्ति धीमी पड़ गई और उसकी सार्थकता पर संदेह होने लगा तो प्रगति का मुखौटा उतारकर जनवादी मुखौटे में अपनी सार्थकता साबित करने बैठ गए।
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देखने की बात यह है कि जिस प्रकार प्रगतिवादी युग में पुनरूत्थानवाद की अधोगामी प्रवृत्ति से लैस, अनेक लेखक प्रगतिशीलता का मुखौटा ओढ़कर प्रगतिवादी दस्ते में खड़े हो गए, ठीक उसी प्रकार वे लोग जो प्रगतिशीलता के चेहरे पर जब तक प्रतिष्ठा की चमक देखते रहे, उसके साथ जुड़े रहे और जब यह दीप्ति धीमी पड़ गई और उसकी सार्थकता पर संदेह होने लगा तो प्रगति का मुखौटा उतारकर जनवादी मुखौटे में अपनी सार्थकता साबित करने बैठ गए।