हे गिरीश! आपको देखकर आपके भव्य चरणयुगलों को हाथों से ग्रहण कर, शिर में, नेत्रों में, व हृदय में, धरण कर, उन चरणों का आलिन कर खिले हुए कमलों के गन्ध् युत्तफ पराग वाले उन चरणों को सूँघकर, ब्रादि देवताओं के लिए दुर्लभ प्रसता को अपने हृदय में कब प्राप्त करूँगा।
12.
हे शम्भो! आप केवल अपनी क्रीडा के लिए ही इस सम्पूर्ण प्रप की रचना करते हो, इस प्रप में जितने भी प्राणिवर्ग हैं, वह सब आपके क्रीडार्थ मृग के समान हैं, हे भगवान् इस संसार में आकर मैंने यहाँ जो कुछ भी कर्म किया है, वह सब आपके प्रसता के लिए ही होवे।
13.
यों को दूर करने में कुशल हैं, विद्यारूपी वनस्पति सस्य के पफलोदय के लिए सन्तों द्वारा सेवनीय हैं, भत्तफों की इच्छानुसार रूप को धरण करने वाले हैं, नाचते हुए मनरूपी मयूर के लिए आप पर्वत स्वरूप हैं, अर्थात् मयूर जिस प्रकार पर्वत व शाखा का अवलम्बन कर मेघ को देखते ही नाचता है, उसी प्रकार भत्तफ भी आपका अवलम्बन लेकर या आपके नीलकन्ध्र को देखकर प्रसता से नाचता है।
14.
हे नीलकन्ध्र! आप करुणा-दया-रूपी अमृत की वर्षा करने वाले हैं, महाविपत्तियों को दूर करने में कुशल हैं, विद्यारूपी वनस्पति सस्य के पफलोदय के लिए सन्तों द्वारा सेवनीय हैं, भत्तफों की इच्छानुसार रूप को धरण करने वाले हैं, नाचते हुए मनरूपी मयूर के लिए आप पर्वत स्वरूप हैं, अर्थात् मयूर जिस प्रकार पर्वत व शाखा का अवलम्बन कर मेघ को देखते ही नाचता है, उसी प्रकार भत्तफ भी आपका अवलम्बन लेकर या आपके नीलकन्ध्र को देखकर प्रसता से नाचता है।
15.
हे शम्भो! दुराशा-कुत्सित-वासनाओं से परिपूर्ण एक क्रूर स्वामी के घर के द्वार के समान, जिसमें सिवाय दु: ख के और कुछ भी हासिल न हो सके, ऐसे पाप के भण्डार के समान दु: खजनक इस संसार में, कहिए आपकी यह प्रसता किस काम की? जो कि मेेरे सन्ताप को भी दूर नहीं कर सकती है, हे स्वामिन्! यह सब जानते हुए भी, आप क्यों इस सन्ताप को दूर नहीं करते, यदि यह त्रिविध् सन्ताप दूर हो जाए तब तो हम सब कृतार्थ हो जाऐं।