जरूरी नहीं है, कतई जरूरी नहीं है इसका सही ढंग से पढ़ा जाना, जितना ज़रूरी है किसी नागवार गुजरती चीज़ पर मेरा तड़प कर चौंक जाना उबलकर फट पड़ना या दर्द से छटपटाना आदमी हूं और जिंदा हूं, यह सारे संसार को बताना!
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जरूरी नहीं है, कतई जरूरी नहीं है इसका सही ढंग से पढ़ा जाना, जितना ज़रूरी है किसी नागवार गुजरती चीज़ पर मेरा तड़प कर चौंक जाना उबलकर फट पड़ना या दर्द से छटपटाना आदमी हूं और जिंदा हूं, यह सारे संसार को बताना!
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सभी मगन हैं धरती आकाश वायु सव डोल रहे हैं देखो वह आकाश फट पड़ना चाहता है आकाश की उस स्वर्णिम आभा को देखो सैकडो निर्झर बहे जा रहे हैं हे मेरे अनंत तेजस्वी परम ज्ञान! मेरा अन्तिम गीत सुनो वैराग्य हट जाएगा इसके स्वरों में मेरा आनंद भरा है देखो हे महा विराट!
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जाहिर है एक ` बड़े ` आदमी को हक़ है कि वो जब चाहे जिसे फटकार लगाए, फिर वो हुसेन हों, असहमति जताने वाले रवीन्द्र त्रिपाठी हों या किसी कार्यक्रम के श्रोता हों (जसम के गांधी शांति प्रतिष्ठान में हुए एक कार्यक्रम में उनका फट पड़ना ज्यादा पुरानी घटना नहीं है) ।
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दयानंद पांडेय किसी नागवार गुज़रती चीज़ पर / मेरा तड़प कर चौंक जाना / उबल कर फट पड़ना / या दर्द से छ्टपटाना / कमजोरी नहीं है / मैं ज़िंदा हूं / इस का घोषणापत्र है / लक्षण है इस अक्षय सत्य का कि आदमी के अंदर बंद है एक शाश्वत ज्वालामुखी / ये चिंगारियां हैं उसी की जो यदा कदा बाहर [...]
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किसी नागवार गुज़रती चीज पर मेरा तड़प कर चौंक जाना, उबल कर फट पड़ना या दर्द से छटपटाना कमज़ोरी नहीं है मैं जिंदा हूं इसका घोषणापत्र है लक्षण है इस अक्षय सत्य का कि आदमी के अंदर बंद है एक शाश्वत ज्वालामुखी ये चिंगारियां हैं उसी की जो यदा कदा बाहर आती हैं और जिंदगी अपनी पूरे ज़ोर से अंदर धड़क रही है-यह सारे संसार को बताती हैं।
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किसी नागवार गुज़रती चीज पर मेरा तड़प कर चौंक जाना, उबल कर फट पड़ना या दर्द से छटपटाना कमज़ोरी नहीं है मैं जिंदा हूं इसका घोषणापत्र है लक्षण है इस अक्षय सत्य का कि आदमी के अंदर बंद है एक शाश्वत ज्वालामुखी ये चिंगारियां हैं उसी की जो यदा कदा बाहर आती हैं और जिंदगी अपनी पूरे ज़ोर से अंदर धड़क रही है-यह सारे संसार को बताती हैं।