जिन पंक्तियों से गुजरा हूँ इस पोस्ट पर, उसका कवि ठहरा हुआ है, ऐसी स्थिति में सहज ही घड़ी, दिन,,,, आदि समय के बँटवार कचोट से रहे हैं, पर आगे तो चलता ही होगा भले ही ' किसी दिन जिन्दगी की कितनी ही तलब ' क्यों न लगी हो! हमारा रुकना भी नियत है, उसी में वेदना-वेदित हो लें जितना चाहें...
12.
सर्दी में भी गर्मी का अहसासकरवाता वाडीलाल का नाम लगाए उ आइसक्रीम वाले को ; घर में हुई बर्तनों की खिटपिट से मायूस-बकियाहिसाब घर देखने की होड-बच्चे को संभालती-उ नांगलोई जे जे कालोनी में रहने वाली ननद-भौजाई को; सरकारी छुट्टी का सपरिवार आनंद लेते; १० रुपे में मिले ३ की जगह ४पापड खरीद बँटवार करते उ हिम्मती पुरुष को; हजारों की तादाद में आये बाल बच्चों और परिवार जो मात्र एक नज़र परेड देखने के लिए आये-उ सब भाईलोगो को;