असगर ने अपनी मोटर साइकिल से एक बड़ा झोला सा उतारा और धुर्वे को दिया-चचा, ये तो अभी यहां इतना ही हो सकता है रुपए को बांट दो, कुछ खा लो।
12.
लेकिन अपना हाहाकार भरपूर है, जो कविता को निजता से बाहर निकाल लाता है … फिर कविता के उपकरण देखिए … रात का ज़िक्र … उसके आंगन में बड़ा झोला ले आने वाले के पैरों के निशान … कुछ फंतासी … कुछ भय … और वह भेदिया … मुझे मुक्तिबोध याद आने लगते हैं. वहाँ जासूस है … यहाँ भेदिया है …