रघुबीर यादव ने जिस अंदाज़ में इस गीत को अपनी आवाज़ दी है उससे लोगों को यही लगेगा कि कोई मँजा हुआ लोकगायक गा रहा है।
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एक ओर सम्पूर्ण जीवन का मँजा हुआ अनुभव था, समझौतों से भरा हुआ ; दूसरी ओर कच्चा आदर्शवाद था, ज़िद्दी, उद्दंड और निर्मम।
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एक ब्लॉगर क्यों लिखता हैं? आज हर ब्लॉगर एक साहित्यकार, मँजा हुआ लेखक या पत्रकार नहीं है.बहुतों के पास लिखने की कोई मजबूरी भी नहीं है.वो अच्छी तरह से कमा खा रहे हैं.
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एक ब्लॉगर क्यों लिखता हैं? आज हर ब्लॉगर एक साहित्यकार, मँजा हुआ लेखक या पत्रकार नहीं है.बहुतों के पास लिखने की कोई मजबूरी भी नहीं है.वो अच्छी तरह से कमा खा रहे हैं.
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हवलदार अगर मँजा हुआ हो तो शोर में दबी हुई ऊर्जा को खामोशी में नहीं बदलेगा, बल्कि बारी-बारी से हर आवाज को आगे रखकर पीछे की आवाजों को उनका अनुगमन करने का माहौल पैदा करेगा ।
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प्रेम जी, कविता भले ही तत् काल के परिदृश् य को अपनी दृष् टि-सीमा में रखती है पर अपने भीतर निहित रे्हेटारिक और उक् ति-पुनरुक् ति से कविता में एक मँजा हुआ प्रभाव तो कायम करती ही है।
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कुछ भी हो, 14वीं शती तक कश्मीरी भाषा बोलचाल के अतिरिक्त लोकदर्शन और लोकसंस्कृति का भी माध्यम बन चुकी थी और जब हम लल-वाख (1400 ई.) की भाषा को “बाणासुरवध” (1450 ई.) की भाषा से अधिक मँजा हुआ पाते हैं तो मौखिक परंपरा की गतिशीलता में ही इसका कारण खोजना पड़ता है।
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कुछ भी हो, 14वीं शती तक कश्मीरी भाषा बोलचाल के अतिरिक्त लोकदर्शन और लोकसंस्कृति का भी माध्यम बन चुकी थी और जब हम लल-वाख (1400 ई.) की भाषा को “बाणासुरवध” (1450 ई.) की भाषा से अधिक मँजा हुआ पाते हैं तो मौखिक परंपरा की गतिशीलता में ही इसका कारण खोजना पड़ता है।
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समकालीन हिन्दी कविता में बनावटी कलात्मकता एक दो नहीं, कई युवा कवियों के मस्तक में महामाया बनकर नाच रही है और वे तमाम दंद-फंद से लबरेज ऐसी अनोखी, अनदेखी, अज्ञात भाषा-शैली गढ़ रहे हैं कि उसका सामना पड़ने के बाद कविता का मँजा हुआ पाठक भी गश खाकर गिर पड़े और दुबारा कविता पढ़ने का दुस्साहस न करे।
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हिन्दी साहित्य या हिन्दी पत्रकारिता से कोई खास परिचय नहीं इस लिए उस पर कुछ कहना मुशकिल है, पर कुछ सवाल जो मेरे मन में भी है वो आप ने भी उठाये है एक ब्लॉगर क्यों लिखता हैं?आज हर ब्लॉगर एक साहित्यकार, मँजा हुआ लेखक या पत्रकार नहीं है.बहुतों के पास लिखने की कोई मजबूरी भी नहीं है.वो अच्छी तरह से कमा खा रहे हैं.